सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Thursday, October 18, 2012

लोकतंत्र या तंत्रलोक ?



इन दिनों देश में एक के बाद एक हो रहे खुलासों से यह राय सुद्रढ़ हो रही है कि भारत के सभी संसाधनों" पर चन्द रईसों और ताकतवर लोगों का कब्जा है। रईसों और ताकतवर लोगों के बीच बनें इस सशक्त गठबन्धनको हम सिंडीकेट या माफिया कह सकते हैं।

रईसों और ताकतवर लोगों  का यह सिंडीकेट कुछ नियम-कायदे बनाता है ताकि जो लोग रईस और ताकतवर नहीं हैं वह इस (अ)व्यवस्था से हमेशा बाहर ही रहें। यह सिंडीकेट”, सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियों और ज्ञान को अपने नियन्त्रण में रखता है। जानकारियों से यहाँ मतलब धन बनाने, व्यापार और रोजगार की उन सम्भावनाओं से है जिनका पूर्व ज्ञान मात्र कुछ लोगों को ही रहता है। (इसका सीधा मतलब यही है कि कौन सी जमीन महंगी होने वाली है, किस जगह हाई-वे, पावर प्लांट आदि बनाने हैं, किस प्रकार की टेक्नोलोजी या उत्पाद को बढावा देना है। सरकारी और निजी व्यापार और रोजगार की बयार किस तरफ बहेगी और उससे होने वाले लाभ की गंगा किस तरह और किस किस को तरेगी .....यही सब)

उपरोक्त जानकारियों को सीमित पहुंच तक रखने के लिये रईसों और ताकतवरों का यह सिंडीकेटबहुत से नियम-कायदों का मकड़जाल बुनता है। नियम-कायदों के इस मकड़जाल का पहला मकसद यही होता है कि आम आदमी”, रईसों और ताकतवरों के इस वैभवशाली साम्राज्य से दूर रहे और उसे किसी भी तरह से चैलेंज करने की स्थिति में न पहुचें। नियम-कायदों के इस मकड़जाल में बहुत सी सीढ़ियां होती हैं और हर सीढ़ी पर एक गेट कीपर तैनात होता है।

यह (अ) व्यवस्था हर गेटकीपर को कुछ ताकत देती है जिनके द्वारा वह अपनी सीमा में नियत नियम-कायदों को नियंत्रित करता है।......यह बात महत्वपूर्ण है कि गेटकीपर का अहम काम अपने उपर वाली सीढ़ी तक पहुंच को मुश्किल बनाना है, इसके परिणाम स्वरुप प्रत्येक उपर वाले गेटकीपर की ताकत कई गुना बढ़ती जाती है। और अंत में सिंडीकेट महा-शक्तिशाली हो जाता है।

रईसों और ताकतवरों का यह सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेट”, अन्य सहयोगी लोगों के शातिर नेटवर्क के द्वारा नियम-कायदों के इस मकड़जाल को नियंत्रित करता है, और यह सुनिश्चित करता है (अ) व्यवस्था की सभी संस्थायें इस शातिर नेटवर्क के द्वारा नियंत्रित की जायें। इन संस्थायों के मुखिया के पद पर जब शातिर नेटवर्क के व्यक्ति को बैठाया जाता है तो उसकी ताकत बेहद उंचे दर्जे की हो जाती है क्योकिं उसके कार्य अब विधि और संविधान सम्मत हो जाते हैं और उन्हें चैलेंज करना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन को जाता है। सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेटइस बात के पूरे इंतजाम करता है कि शातिर नेटवर्क के एक- एक व्यक्ति को ताउम्र पूर्ण सरंक्षण दिया जाये।

आप कह सकते हैं कि क्या देश का वाच डागमीडिया और इस शातिर नेटवर्क से बाहर हुये लोग क्या इतनी आसानी से इसे काम करने दे सकते हैं?  

तब जबाब यही है कि मीडियाजो जनमानस को निरंतर प्रभावित करता है उसे भी इसी शातिर नेटवर्कद्वारा येन केन प्रकारेण नियंत्रण में रख कर वाच डाग से लैप डाग बना दिया जाता है। शातिर नेटवर्कमें उन लोगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है जो या तो येन केन प्रकारेण, “सशक्त गठबन्धन या सिंडीकेटको फायदा पहुंचाते हैं या फिर उनका बहुत विरोध करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। बहुत से गेटकीपर जो अपने रसूख और धनबल को बढ़ाने में कामयाब हो जाते हैं उन्हें भी शातिर नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है।

(अ) व्यवस्था के पूरे तन्त्र को लालच रुपी इंजन से चलाया जाता है और इसके सभी कल पुर्जों में काले धन रुपी लुब्रीकैंट को डाला जाता है।

Tuesday, October 2, 2012

मैं हूँ आम आदमी!!





कौन है आम आदमी ?
आर. के. लक्ष्मण के कार्टूनों में से झाँकता
समाज व्यवस्था के संघर्षों से जूझता
अनवरत पीड़ा का प्रतीक
वो बूढा है, क्या आम आदमी?

सत्ता पाने
और सत्ता में बने रहने का सूत्र
किसी राजनीतिक पार्टी के चुनावी कैम्पेन की
टैग-लाइन है क्या वो आम आदमी?

बाँझ खेतों को
अपने खून से सींचता
कपास का किसान है
या, लक्मे फैशन वीक के
“खादी क्लेक्शन” का प्रतीक चिह्न है
क्या वो आम आदमी?

धन्ना सेठ से अपनी ज़मीन,
अपना जंगल हार चुका
सभ्य जगत में
आदिवासी करार कर दिया गया
वो बेकार बेगार है क्या आम आदमी?

दफ्तरों में कलम घिसता
माँ की बीमारी, बेटे की नौकरी
या बेटी की शादी के लिये हलकान
मूल्यों सिद्धांतों और अपनी आत्मा से
हर रोज़ समझौता करता
बेबस लाचार है
क्या वो आम आदमी ?

शातिर दिमागों की शतरंजी चालों को
अपने आक्रोश की बन्दूकों से
जीतने की कोशिश करता
हाशिये पर पड़ा
नक्सलवादी ग्रामीण है
क्या वो आम आदमी ?

ग़रीब के नाम से लूटे
सरकारी ख़जाने के पैसों से
अपने मोटे पेट को पालता
सरकारी अफसर है क्या वो आम आदमी ?

बीस रुपये रोज़ पर जीवन बितानेवाला
व्यवस्था से दरकिनार
देश का लगभग
दो तिहाई हिस्सा है क्या वो आम आदमी ?

बाज़ार की पटरी पर
आई पी ओ के फार्म बटोरता
रीटेल इंवेस्टर है क्या वो आम आदमी ?

कभी गर्मी, कभी सर्दी,
कभी बरसात से हारी
सडक किनारे पड़ी
लावरिस लाश है क्या वो आम आदमी?

कभी महंगे बाज़ारों को
हसरत भरी निगाहों से देखते
और कभी अपने क्रेडिट कार्ड की
बची हुई लिमिट को आंकते
मल्टीनेशनल कम्पनी का
एम बी ए मैनेज़र है क्या वो आम आदमी !!

सरकारी योजनाओ का केन्द्र है आम आदमी !!
खास लोगों के लिये आम बात है -आम आदमी !!
अपने ही देश मे खो गयी, देश की अवाम है-आम आदमी !!
भरे पेटों के गुलाबी गालों में छुपी कुटिल मुस्कान है -आम आदमी !!

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