सम्वेदना के स्वर

यह ब्लॉग उस सनातन उत्सवधर्मिता को जीवित रखने का प्रयास है,

जिसमें भाव रस और ताल का प्रतीक आम आदमी का भा-- बसता है.
सम्वेदनाएँ...जो कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति आदि के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं, आम आदमी के मन, जीवन और सरोकार से होकर गुज़रती हैं तथा तलाशती हैं उस भारत को, जो निरंतर लड़ रहा है अपने अस्तित्व की लड़ाई.....

Friday, September 30, 2011

मैं अकेला ही चला हूँ - डॉ. सुब्रमनियन स्वामी

[जिस  प्रकार के घटनाक्रम अभी देश की सबसे बड़ी अदालत में चल रहे हैं, उन्हें देखते हुए, उस एक आदमी का ख्याल ज़रूर आता है, जो इस पूरी लड़ाई में अकेला योद्धा बना कौरवों की सेना से लड़ रहा है. आश्चर्य यह है कि वह स्वयं अर्जुन भी है और कृष्ण भी. जब लोगों ने एक साथ देश के अन्य भ्रष्टाचार की याद दिलाई तो उन्होंने कहा कि मुझे तो बस अभी एक समय में एक ही लक्ष्य दिख रहा है. 
डॉ.सुब्रमनियन स्वामी पर हमारी यह पोस्ट फरवरी में प्रकाशित की थी हमने. आज इसे दुबारा साझा करते हुए हमें और भी खुशी हो रही है.]

रवींद्र नाथ ठाकुर के आह्वान “जदि तोमार डाक शुने केऊ ना आशे, तबे एकला चलो रे!” और रवींद्र जैन जी के एक गीत में कही बात कि
सुन के तेरी पुकार,
संग चलने को तेरे कोई हो न हो तैयार,
हिम्मत न हार
चल चला चल, अकेला चल चला चल!

हम लोग इस आह्वान को सुनकर बहुत रोमांचित हो जाते हैं, लेकिन कभी भी किसी अकेले चलने वाले के पीछे चलना पसंद नहीं करते, साथ चलने की तो बात ही दीगर है. एक भेड़ चाल सी मची है. सब भीड़ चाल में हैं, क्योंकि भीड़ में मुँह छिपाना बहुत आसान होता है.

फिर भी एक शख्स है, जो भीड़ से अलग चलता है और इस बात की परवाह भी नहीं करता कि कोई उसके साथ है कि नहीं. सही मायने में “वन मैन आर्मी!!”

15 सितम्बर 1939 को चेन्नै में जन्मे इस व्यक्ति का नाम है डॉ. सुब्रमनियन स्वामी.

डॉ. स्वामी विश्व प्रसिद्ध हार्वर्ड विश्वविद्यालय से सन् 1962 से ही जुड़े हैं, वहीं से उन्हें अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि मिली और यह उपाधि भी उनके उस शोध पर जो उन्होंने नोबेल विजेता साईमन कुज़्नेत्स और पॉल सैम्युलसन के साथ मिलकर किया । 1969 में वह हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एसोशिएट प्रोफेसर भी रहे। बाद में उन्हें आईआईटी दिल्ली में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर का ओहदा मिला। 1963 में कुछ समय के लिए इन्होनें संयुक्त राष्ट्र सचिवालय में आर्थिक मामलों के सहायक अधिकारी के रूप में भी काम किया।

इसके बाद डॉ. स्वामी 1974 से 1999 तक पाँच बार संसद में चुनकर आए, 1990-91 में नरसिंह राव सरकार में वाणिज्य, विधि एवम् न्याय मंत्री बनें, 1994-96 में श्रम मानक एवम् अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कमीशन के अध्यक्ष के रूप में योगदान दिया।

लेखन के क्षेत्र में इनका योगदान लगभग दस से ज़्यादा पुस्तकों का रहा है. इकोनॉमिक ग्रोथ इन चाईना एंड इंडिया (1989) और हिंदूज अंडर सीज (2006) इनमें प्रमुख हैं
डॉ. स्वामी के भाषा ज्ञान का अनुमान इसी बात से लगाया जाता है कि वो चीन की मांदारिन भाषा पर भी महारत रखते हैं। चीन के अर्थशास्त्र पर इनके लेखों का उपयोग माओत्से तुंग के बाद चीनी नेतृत्व की कमान सम्भालने वाले नेता देंग चियओपिंग ने अपने आर्थिक सुधारों को समझाने के लिये किया।

विदेश नीति के क्षेत्र में भारत-चीन, भारत-पाक और भारत-इस्राइल संबंधों को बेहतर बनाने का श्रेय इनको जाता है. उनके प्रयासों का ही परिणाम रहा है कि 1992 में भारत ने इन देशों में अपने दूतावास खोले.

1981 में इनके प्रयासों से भारत-चीन सम्बंधों में सुधार हुआ। उल्लेखनीय है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने विपक्ष में होने के बाबजूद भी डॉ. सुब्रमनियन स्वामी को चीनी नेता देंग चियओपिंग से बातचीत करने कि लिये चीन भेजा। इनके प्रयासों से कैलाश मानसरोवर का मार्ग चीन ने खोल दिया. तिब्बत जाने वाला यह मार्ग चीनी नेता देंग चियओपिंग ने इस शर्त पर खोलने की इजाज़त दी कि कैलाश मानसरोवर जाने वाले पहले जत्थे का नेतृत्व डॉ. सुब्रमनियन स्वामी करें। डॉ. सुब्रमनियन स्वामी नें इस चुनौती को बखूबी निभाया।

इस्राइल के साथ हमारे देश के संबन्धों के पीछे भी इनके प्रयास रहे। जिन आर्थिक सुधारों को हम भारत का स्वर्णिम सुधार काल कहते हैं और जिसे बाद में तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने लागू किया, उसके ब्लू प्रिंट को तैयार करने में उस सरकार के वाणिज्य मंत्री रहते हुये डॉ. स्वामी के योगदान को भूला नहीं जा सकता।

भारतवर्ष में डॉ. स्वामी की पहचान इमर्जेंसी के दौरान (1975-77) इनके प्रखर विरोध के कारण बनी. इमरजेंसी के दिनों की एक बड़ी हैरत अंगेज़ घटना बताई जाती है. पुलिस में इनका नाम मॉस्ट वांटेड की सूची में था. इसके बावजूद भी वो विदेश चले गये और विदेश में रह रहे भारतीयों को संगठित किया. अगस्त 1976 में वे पुनः भारत आए और संसद में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कर पुनः अंतर्ध्यान हो गये. वे जताना चाहते थे कि आपातकाल जैसी निरंकुशता की ठोस दीवार में भी सेंध लगाई जा सकती है. श्रीमती गाँधी ने 1977 में चुनाव की घोषणा कर दी, जो शायद स्वामी जी से हार स्वीकार करने की दिशा में पहला क़दम था. तब से स्वामी जी ने राष्ट्रीय हित के लिये जनता को प्रभावित करने वाले हर मुद्देपर अपनी आवाज़ बुलंद की है.

एक सांसद के रूप में इनका कार्यकाल काफी विस्तृत रहा है. 1974 में उत्तर प्रदेश से राज्य सभा के लिए चुने गए, 1977 में उत्तर पूर्व मुम्बई से लोक सभा में, 1988-94 तक पुनः राज्य सभा में उत्तर प्रदेश से, 1988 में मदुरै से लोक सभा में... इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इन्होंने अपने मतदाताओं का साथ कभी नहीं छोड़ा और हमेशा उनके सम्पर्क में रहे.

यूपीए-2 सरकार अपने शासन के पहले ही साल में जिस तरह से घोटालों, काले धन और मंहगाई डायन के प्रकोप से पीड़ित दिख रही है, उसमें सरकार के लिये सबसे बड़ी समस्या इस समय 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर है। कोई और समय होता तो सरकार विपक्ष के हो-हल्ले को “तू भी तो चोर है” कहकर चुप करा देती. परंतु जब 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर सुब्रमनियन स्वामी की जनहित याचिका पर कार्यवाही करते हुये सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री को एफेडेविट फाईल करने पर मजबूर कर दिया, तब मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक, सब हरकत में आये। और अब तो ख़ैर सारा खेल ही खुले में हो रहा है।

दुनिया का दस्तूर है कि मुँह पर दोस्ती और छिपे में दुश्मनी निकालना, लेकिन स्वामी जी का सिद्धांत अनोखा है- मेरे कई उजागर दुश्मन हैं और छिपे दोस्त. उनका कहना है कि उनके मित्र दुनिया भर में फैले हैं और सत्य को उद्धघाटित करने की मुहिम में उन्हें सूचनाएँ उपलब्ध कराते रहते हैं। डॉ. सुब्रमनियन स्वामी की आधिकारिक वेब साइट पर न जाने कितने ही रोचक रहस्योदघाटन हैं, जिन्हें पढकर किसी के भी मुँह से बरबस यही निकलेगा कि “उफ! यह तो विकीलीक्स का भी बाप है!”और अब उनके इस ब्लॉग पर सारी गतिविधियां उपलब्ध हैं!

आज जब इस देश में हर चीज़ बिकाऊ है, हर चरित्र पर प्राईस टैग लगा है, हर योजनाएँ बिकी हुई हैं और हर नागरिक ख़ामोश है, कोई एक अकेला इस लड़ाई में जुटा है. सम्वेदनहीनता की नींद सोये आज भी कई लोग यही कहते हैं कि यह व्यक्ति सिर्फ एक स्टंट मैन है. लेकिन उनको कौन समझाए कि हर नायक की बहादुरी के पीछे एक स्टंट मैन का ही हाथ होता है. दुष्यंत कुमार के शेर पर हर कोई तालियाँ बजाता दिख जाता है, लेकिन डॉ. सुब्रमनियन स्वामी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने हाथों में पत्थर उठा रखा है और 72 वर्ष की उम्र में भी हौसला ऐसा है कि जब तक आकाश में सुराख़ न कर लें, सुस्ताएँगे नहीं.

और अंत में :

डा. सुब्रमण्येम स्वामी बताते हैं कि आम आदमी क़ानून की जानकारी रखने से बचता है और न्याय से वंचित रह जाता है। पेशे से वकील न होते हुये भी डा. सुब्रमनियन स्वामी ने कानून की अनेकों लड़ाईयां लड़ी हैं और लड़ रहे हैं। वह अपनी वकील पत्नी के साथ केस पर मिल कर काम करते हैं। इसलिए उन्हें अक्सर सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ता है। उनके पास संसद का पास है। पर सर्वोच्च न्यायालय में इस पास को मान्यता नहीं दी जाती। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में आसानी से आने जाने के लिए उन्होंने पास प्राप्त करने के लिये आवेदन किया और उसमें खुद को अपनी पत्नी रुक्साना स्वामी (वकील) का क्लर्क बताया। डा. सुब्रमनियन स्वामी के परिवार में पत्नी और दो बेटियाँ हैं। पत्नी रुक्साना सुप्रीम कोर्ट में वकालत करती हैं। दो बेटियों – गीतांजलि स्वामी और सुहासिनी हैदर – में से एक सुहासिनी पत्रकार हैं। वह समाचार चैनल सीएनएन-आईबीएन में वरिष्ठ पद पर हैं।

Thursday, September 22, 2011

राजमाता का भय - युवराज आउल की कैसे हो जय!!


राजमाता अपनी अमारक द्वीप की यात्रा से लौट चुकी थीं और आग बबूला होती हुई, अन्धेर नगरी के युवराज आउल को व्यक्तिगत कक्ष में बुलाया. उनके मध्य हुए वार्तालाप का एक अंश:
राजमाता: यह हम क्या देख रहे हैं युवराज! आप ऐसे बाल-सुलभ कार्य कैसे कर सकते हैं.
आउल : माते! मैंने क्या किया! मैंने तो बस वही किया जो मुझे तीनों ताऊश्री ने करने को कहा! आप ही तो उन्हें मेरी निगरानी के लिए नियुक्त कर गयी थीं!
राजमाता: हे प्रभु! हमने आपको अपने आसन पर बिठाया था. यदि आप इतना भी दायित्व नहीं वहन कर सकते, तो कैसे महाराज के पद पर आसीन होंगे. हमने सोचा था कि आप उनको अपना अनुयायी बना लेंगे, किन्तु आप तो स्वयं उनका अनुकरण करने लगे!
आउल : किन्तु माते, आपने मुझे या उन्हें यह बात क्यों नहीं बताई? मुझे लगा कि आपने तीनों ताऊश्री (अहमक पटेल, यम एंटोनी और द्विछेदी) को मेरे मार्गदर्शन हेतु नियुक्त किया है. यदि आप मुझे नेतृत्व सौपना चाहती थीं तो आपको मुझे प्रभारी नियुक्त करना चाहिए था!
राजमाता: युवराज आउल! हमने उन्हें मात्र इसलिए आपके साथ रखा था कि यदि आप कोई अतिमूढतापूर्ण कार्य कर बैठो, जिसकी संभावना अधिक थी, तो वे उसके लिए उत्तरदायी ठहराए  जा सकें! वास्तव में सारा सूत्र आपके हाथ में होना चाहिए था. जाने दीजिए, यह बताइये कि राजदरबार में शून्यकाल में आपके भाषण के पीछे किसका हाथ था?
आउल : तीनो ताऊश्री का. उन्होंने कहा कि इस भाषण के बाद मेरी छवि राजनेता की हो जाएगी!
राजमाता: और आपने अपनी मूढता का प्रमाण भरी सभा में दे दिया! जब राजमहल में आग लगी हो तो अग्निशमन के नियम पर भाषण नहीं दिए जाते, स्वयं भागकर अग्निशमन किया जाता है! यदि हम होते तो सुनिश्चित करते कि वह गन्ना फसां-रे कारावास से मुक्त कर दिया जाता और इसका श्रेय भी हम ही लेते. किसी भी अनियमितता के लिये ईमानदार सिहं, लुंगीभरम या कुटिल चप्पल पर दोषारोपण कर देते. आप किस चिंतन में हैं युवराज?
आउल : माते! आपके स्वास्थ्य की चिंता में मैं कुछ सोच भी नहीं पा रहा था.
राजमाता: अनर्गल प्रलाप न करें युवराज! बताएं कि वापसी के समय आपने कितनी बार कहवा पान किया? कितनी बार आप को कहा है कि इससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है. एक बार आपने मेरे प्याले से कहवा की एक घूँट चखी थी और आप दो दिन तक चन्दा मामा दूर के गाते फिर रहे थे. जाने दीजिए... यह बताइये कि उस दिन उपद्रवियों के विस्फोट के उपरांत आपको चिकित्सालय जाने की सलाह किसने दी थी??
आउल : डुगडुगी मामा ने! उन्होंने कहा कि उन्हें सूचना प्राप्त हुई है कि हरे राम बागवानी भी वहाँ जाने वाला है.
राजमाता: आने दें उसे! हमें पता है तुम्हारे डुगडुगी मामा में जो सदगुण हैं और उनका वह हमारे लिये  उपयोग भी करता है. किन्तु उसकी बातों को आप कभी देववाणी की तरह न ग्रहण करें! क्या आपने डुगडुगी की सलाह के विषय में आपने तीनों ताऊश्री से कोइ सलाह ली थी?
आउल : माते! जब उन्हें यह पता चला कि डुगडुगी मामा की यह सलाह है तो वे पीछे हट गए,किन्तु उनके मुख पर एक कुटिल मुस्कान थी.
राजमाता: आप कब अपना मस्तिष्क प्रयोग करना सीखेंगे युवराज! आपको जानना चाहिए कि हम ऐसे व्यक्तियों से घिरे हैं जिनके मन में मात्र उनके निहित स्वार्थ भरे हैं. जो कुटिल मुसकान बिखेर रहे थे उन्हें पता था कि डुगडुगी अपनी सलाह के कारण फंसने वाला है और आपके  चिकित्सालय जाने के दुष्परिणाम आपके ही विरुद्ध होंगे. अतः वे मौन रहे. उनकी स्पष्ट इच्छा थी कि डुगडुगी अपने जाल में स्वयं फंसे. सब कुटिल हैं. आप जब चिकित्सालय गए ही थे तो अपने चचेरे बंधू करुण की तरह रक्तदान क्यों नहीं किया?
आउल : माताश्री! मैं और रक्तदान!!! मुझे सुई से भय होता है. एक बार मैं सुई देखकर ही मूर्छित हो गया था. किन्तु अब मेरी भूल का सुधार कैसे हो पायेगा?
राजमाता: सर्वप्रथम हमें यह प्रयास करना होगा कि ईमानदार सिहं, और लुंगीभरम को गन्ना फसां-रे के कारावास के लिए दोषी बताया जाए. राजदरबार में आपके भाषण के लिए हमारे हरकारों के माध्यम से यह बात फैलायी जा रही है कि आपने जो भी कहा वो सही प्रस्ताव था और हरे राम बागवानी और उसके साथी शत्रुता के कारण इस सुझाव को दोषयुक्त बता रहे हैं. और रही बात विस्फोट के बाद आपके चिकित्सालय जाने की, तो उस सम्बन्ध में हमनें यह प्रचार किया ही है कि आप हताहतों के दुःख से द्रवित हो अपना नियंत्रण खो बैठे और आप बिना अपने सुरक्षा प्रहरियों के भी चिकित्सालय पहुँच गए थे!
आउल : माते! आप चमत्कारी हैं!!
राजमाता: आज के बाद हम यह चाहते हैं कि आप अपना निर्णय स्वयं लें. आज से आपका रात्रि-उत्सव समाप्त और पदयात्रा प्रारम्भ!
आउल : माते! हमें हरे राम बागवानी की रथयात्रा का उत्तर कैसे देना है? मैं स्वयं एक यात्रा करने की सोच रहा हूँ ताकि हरे राम बागवानी को चुनौती दे सकूं.
राजमाता: (एक कुटिल मुस्कान के साथ) उसकी रथयात्रा में उससे कुछ दूरी पर डुगडुगी चलता रहेगा, ऐसे में आपको कुछ और बताने की आवश्यकता है क्या!!
आउल : समझ गया माते! वैसे मैंने अब अधिक समय उत्तरवर्ती प्रदेश में व्यतीत करने का निर्णय लिया है.
राजमाता: किन्तु इसके पूर्व कि आप कोइ भी कदम उठायें, सुनिश्चित करें कि योगमाया मौसी को इसकी जानकारी हो. और उस पर कटाक्ष करने के पूर्व यह अवश्य सोचें कि वो अपने गहने, आभूषण, वस्त्र आदि को लेकर अत्यंत संवेदनशील है.
आउल : माते! इसके पूर्व कि मैं रातों-दिन की राजनीति में जुट जाऊं, क्या मुझे कुछ दिनों का अवकाश मिल सकता है?
राजमाता: आप होश में तो हैं!! जब भी आप कभी अवकाश पर जाते हैं, विरोधियों में यह चर्चा होने लगती है कि आप धन छिपाने गए हैं.
आउल : माते! आप भूल समझ रही हैं. मैं अपने ही प्रदेश में रहकर अवकाश मनाना चाहता हूँ. ताऊश्री शीतल बयार ने मुझे लावास् द्वीप का निमत्रण-पत्र भेजा है.
राजमाता: वो रंगा सियार! आप जाएँ उस द्वीप पर और अगले दिन जंगल की आग की तरह समाचार फ़ैल जाएगा कि वह द्वीप हमारी व्यक्तिगत संपत्ति है!
आउल : ठीक है माते! तब तो मैं घर पर ही रहूंगा. दिन भर मोर का नाच और चतुरंग का खेल खेलूंगा तथा रात्रि के समय सुरा के साथ सुंदरियों के नृत्य.
राजमाता: यह अवकाश है आपका!!! आप विगत कई वर्षों से यही तो करते आ रहे हैं, तो अलग से इन्हीं कार्यों के लिए अवकाश की बात व्यर्थ है!
आउल : (झेंपते हुए) माते! आपको क्या रोग लग गया है? मुझे चिंता है आपकी!
राजमाता: यह अब हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग हो गया है पुत्र! मुझे मृत्यु की आशंका भयभीत करती है. आपके पिताश्री को यह सिंहासन दुर्घटनावश प्राप्त हुआ, आपको सुलभ रूप से प्राप्त हो, इसलिए हम चाहते हैं कि आप सिर्फ अपने खून को पहचाने. कोइ विश्वासपात्र नहीं. आसपास के व्यक्तियों का उपयोग करना सीखें और जब उपयोगिता समाप्त हो जाए तो उन्हें फेंक दें. यही मूल मंत्र है सिंहासन प्राप्त करने का और उसपर बने रहने का.
आउल : जीजाश्री के विषय में आपकी क्या राय है?
राजमाता: उसके लिए आप दीदी प्रियलता पर विश्वास करें और उनकी राय लें. अच्छा अब हम विश्राम करना चाहते हैं.
आउल : माते! आप कितनी अच्छी हैं. मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ.

Tuesday, September 20, 2011

आज की ताज़ा खबर - चचा अखबारी की गप्प्शाला -२


वो क्या है कि हम भी आज अपनी नवाबी के किस्से याद करते हुए हज़रतगंज से अमीनाबाद और चारबाग से गोमती के किनारे टहल रहे थे. तभी हमारी नज़र पडी एक जाने पहचाने चेहरे पर. जब तक पहचानने की कोशिश करें, वो जनाब लोगों की भीड़ में गुम हो गए. अचानक मुंह से निकला चचा अखबारी यहाँ शहर-ए-नखलऊ में. भागे उनके पीछे और जाकर बरामद किया चचा अखबारी को अमीनाबाद में. जब हमारी नज़र और कान उन तक पहुंचे तो पाया कि चचा यहां भी बाज नहीं आ रहे थे और लम्बी-लम्बी छोड़े जा रहे थे. और उसके बाद जो शीरीं तब्सिरा सुनने को मिला, पेश-ए-खिदमत है उसका एक जायजा... नहीं-नहीं एक जायका:

क्या बताएं बरखुरदार! इतवार को राजपथ पर टहल रहे थे हम. जिस वक्त दिल्ली में ज़लज़ला आया, उस वक्त ईमानदार सिंह अपने दफ्त्तर में कुर्सी पर आलथी-पालथी मारकर, राजमाता की बीमारी के बिल क्लियर कर रहे थे. और जब पैरों तले ज़मीन हिली तो ईमानदार सिंह अपनी महीन आवाज़ में चीखने लगे, कितना भी हिला कर देख लो मेरी कुर्सी को. मुझे राजमाता के इलावा कोई भी कुर्सी से नीचे नहीं उतार सकता!

प्रश्न : चचा सुना आपने, युवराज गूगल पर बैन लगवाने जा रहे हैं. लोगों ने कानाफूसी से आगे बढकर खुल्लेआम राजघराने के बारे में ऐसी-ऐसी बातें कहानी शुरू कर दी हैं, जो पहले कभी नहीं सुनी. नतीजा युवराज बहुत परेशान हैं!

अमाँ ये तो सौ फी सदी घबराने की बात है. तारीख गवाह है कि भला पहले किसी की जुरत थी, जो राजघराने के बारे में अच्छा न बोले! सारे भोंपुओं के मालिक, न सिर्फ राजदरबार का खाते थे बल्कि राजमाता से खौफ भी खाते थे. मगर जब से ये कमबख्त कम्पयूटर का खेल चला है ना, ससुरा हर शख्स, वो क्या कहते हो तुम लोग, पत्रकार बना बैठा है. राजघराने की बहुत ही बदनामी हो रही है. जिसे देखो वही मिट्टी पलीद करने पर तुला है.  

प्रश्न : तो अंदर की खबर क्या है चचा, क्या गूगल पर बैन लग ही जायेगा?

अरे मेरे प्यारे भतीजो, वो दिन हवा हुए जब खलील मियाँ फाख्ता उड़ाया करते थे. युवराज के चाहने भर से अब चीज़े नहीं होतीं. दरअसल सोचने वाली बात ये है कि गूगल मुई क्या चीज़ है, सुरक्षा-मंत्री चाहे तो अन्धेर नगरी की हवा-पानी पर पाबंदी लगा दें,  मगर जनाब सुरक्षा-मंत्री के साथ उनका अपना मसला है. अगर गूगल पर बैन लगा दिया तो वह हमलावर दहशतगर्दों को कहां खोजेगा.

प्रश्न : चचा एक सवाल अलग हट के. बड़े भइया लम्बू बचपन इतने दिनों बाद छोटे भइया जहर सिंह से मिलने हस्पताल गये? आखिर इसकी क्या वज़ह हो सकती है?
  
लो कल्लो बात!! भाईजान उसे भी हमारी तरह समझ आ गया है कि लाईफ में हर एक फ्रेंड जरुरी होता है.

इतना बाँच कर चचा तो सरक लिए किसी गली, चौराहे, नुक्कड़, सड़क, मोड़ की तरफ. और हमारे हिस्से छोड़ गए 
अन्दर की खबर:
राजमाता की बीमारी में उनका विदेश में पूरा ख्याल रखने वाले बड़े साहब पालक बटरजी, ईमानदार सिंह के दफ्तर में 3 अक्तूबर से तैनात किये जायेंगे. ईमानदार सिहं को नवरात्रों में माता का प्रसाद!!   

 चचा का परिचय:
किसी बड़े शहर के पार्क में टहलते हुए, कस्बे की चाय की दुकान पर ठल्ले बैठे, गाँव के चौपाल पर सजी महफिल में या फिर काशी के अस्सी में, एक शख्स अक्सर मिल जाते हैं, जो इन सबों के केंद्र में बैठे होते हैं.  उनका सामान्य ज्ञान बड़ा असामान्य सा लगता है. सुनने वालों में कोई उनकी बातों को ‘कांस्पिरेसी थ्योरी’ कहकर खारिज कर देता है, तो कोई राजनीति के पीछे की कूटनीति कहकर सम्मानित. उन्हें देखकर कोई कहता लीजिये आ गये ताजा समाचार, तो कोई कहता कि अब शुरु होता है हमारा असली न्यूज़ चैनल. अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ऑप्टिमम इस्तेमाल करते इन शख्स को हम चचा अखबारी कहते हैं. चचा अखबारी हर शहर, हर गाँव और हर समाज में दिखाई दे जाते हैं. इनकी बातें अविश्वसनीय होकर भी न जाने कब सच्ची लगने लगतीं हैं, वह तो कोई चचा अखबारी की गप्पशाला में शामिल होकर ही जान सकता है. इनकी बातों में कभी राजनीतिक मंच के नेपथ्य की हलचल सुनाई देती है तो कभी राजनैतिक बयान के बिटवीन द लाइन्स अर्थ.

Sunday, September 18, 2011

लोदी का उपवास - चचा अखबारी की गप्पशाला


किसी बड़े शहर के पार्क में टहलते हुए, कस्बे की चाय की दुकान पर ठल्ले बैठे, गाँव के चौपाल पर सजी महफिल में या फिर काशी के अस्सी में, एक शख्स अक्सर मिल जाते हैं, जो इन सबों के केंद्र में बैठे होते हैं.  उनका सामान्य ज्ञान बड़ा असामान्य सा लगता है. सुनने वालों में कोई उनकी बातों को ‘कांस्पिरेसी थ्योरी’ कहकर खारिज कर देता है, तो कोई राजनीति के पीछे की कूटनीति कहकर सम्मानित. उन्हें देखकर कोई कहता लीजिये आ गये ताजा समाचार, तो कोई कहता कि अब शुरु होता है हमारा असली न्यूज़ चैनल. अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ऑप्टिमम इस्तेमाल करते इन शख्स को हम चचा अखबारी कहते हैं.
चचा अखबारी हर शहर, हर गाँव और हर समाज में दिखाई दे जाते हैं. इनकी बातें अविश्वसनीय होकर भी न जाने कब सच्ची लगने लगतीं हैं, वह तो कोई चचा अखबारी की गप्पशाला में शामिल होकर ही जान सकता है. इनकी बातों में कभी राजनीतिक मंच के नेपथ्य की हलचल सुनाई देती है तो कभी राजनैतिक बयान के बिटवीन द लाइन्स अर्थ. अब आज उनकी गप्प्शाला से जो खबरें छनकर आयीं, उनका जायजा लेते हैं ‘हम लोग’.

प्रश्न : चचा सुना आपने, लोदी जी उपवास पर हैं?

मियाँ आप क्या समझते हैं कि जब सारे हिन्दुस्तान और सारी दुनिया में ये खबर फैल चुकी है, तो आपके चचा अखबारी को यह नहीं पता होगा. वैसे जो हमें पता है वो अब हमारे मार्फ़त सिर्फ और सिर्फ आपको पता चलने जा रहा है. अमां! लोदी को भी पता है कि उनके उपवास का मीडिया मजाक ही उड़ायेगा. सुप्रीम कोर्ट से इतनी बड़ी राहत मिली है लोदी को तो फिर उसे भुनाया तो जायेगा ही. अन्ना ने अनशन हिट कराकर, एक नया मॉडल पकड़ा दिया है देश के नेताओं को. अब ‘रोड शो’ और रथ-यात्रा की फ़िल्में फ्लॉप. कहाँ से लायेंगे लम्बी मश्क्कत करने का माद्दा. खोटी करने के लिए मियाँ, न तो जनता के पास टाईम है और न नेताओं के पास. अन्ना मॉडल हिट है, तो बस लगे रहो अन्ना-भाई, माफ करना चमड़े की जुबान फिसल गयी. लगे रहो लोदी भाई! अब आप ही सोच लो. हिफाज़ती इंतज़ाम के लिहाज से भी अनशन में ही भलाई है. और एक राज़ की बात बताउं!!... अगर ये अनशन टाइप की चीज़ वीक-एंड में हो तो टी.वी. पर रिएलिटी-शो वाली टीआरपी मिलने से कोई माई का लाल नहीं रोक सकता.

प्रश्न : चचा! मंडी टीवी, आई बीन 17 और बदमाश न्यूज़ के लोदी कवरेज़ के बारे में आपकी अंदर की बात क्या कहती है? 

लो कल्लो बात! इतना भी नहीं पता कि मंडी टीवी की चरखा भक्त हो या आई बीन 17 का रातदिन नोटछपाई, इन्हें तो लोदी भाई अपने पास भी फटकने नहीं देते हैं. रातदिन नोटछपाई के लिये तो अपने इंटरव्यू में फरमाते हैं कि मिस्टर नोटछपाई! 9 साल हो गये, आखिर कब तक सेलिब्रेट करोगे? और मियाँ, चरखा भक्त की मक़बूलियत का आलम ये है कि वह लीबिया, ईजिप्ट और कश्मीर की खबरें ही कवर करने जा सकती हैं. रामलीला मैदान और अहमदाबाद जैसी जगह पर तो उनके जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता. भय्ये! अब कौन जाए सरे आम अपने ही टीवी कैमरे के सामने, अपनी ही हूटिंग करवाने. कमबख्त पब्लिक भी बड़ी वो है; अभी तक जीरा भांडीया के टेप ज़हन में बिठाए घूम रही है. अब बचा वो आपका बदमाश न्यूज़ चैनल. तो जनाब, उस चैनल के  पीपली चोर रसिया की तो लोदी के सामने पैंट गीली होने लगती है. अंदर की खबर ये है कि इसी डर की वज़ह से वह एक और साथी के साथ मिलकर लोदी का इंटरव्यू लेने गया. मगर बेचारे की किसमत खराब... लोदी ने उन दोनों की पैंट को पीली और गीली दोनों करवा कर भेजा. अब वे दोनों कहते फिर रहे हैं कि “क्या दाग धुलेंगे?”   

प्रश्न : आखिर में आपके एक्सपर्ट कमेन्ट चचा!! एक चैनल वाले ने क्या खूब कहा था कि ए सी कमरे में बैठकर उपवास करने से क्या जनता का दर्द समझा जा सकता है?

हा! हा!! हा!!! भय्ये! मैंने तो देखा नहीं था यह सवाल... मगर ज़रा बताना कि उस चैनल का स्टूडियो क्या गन्ने के खेत में लगा था??

उनके इस एक्सपर्ट कमेन्ट पर मैं भी अपनी हंसी नहीं रोक पाया और मेरे साथ उस गप्प्शाला में ‘खबर अंदर तक’ और ‘खबर बिना किसी कीमत पर’ देख-सुन रहे लोग भी उस ठहाके में शामिल हो गए.

Monday, September 5, 2011

शिक्षक-दिवस - रीपोस्ट

राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, फिर वो राष्ट्रपति हो गये, तो सारे हिदुस्तान में शिक्षकों ने समारोह मनाना शुरु कर दिया “शिक्षक दिवस”.भूल से मैं भी दिल्ली में था और मुझे भी कुछ शिक्षकों ने बुला लिया. मै उनके बीच गया और मैने उनसे कहा कि मै हैरान हूं, एक शिक्षक राजनीतिज्ञ हो जाये तो इसमें “ शिक्षक दिवस” मनाने की कौन सी बात है? इसमे शिक्षक का कौन सा सम्मान है? यह शिक्षक का अपमान है कि एक शिक्षक ने शिक्षक होने में आनन्द नही समझा और राजनीतिज्ञ होने की तरफ गया.जिस दिन कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाये किसी स्कूल मे आकर, और कहे कि मुझे राष्ट्रपति नहीं होना, मै शिक्षक होना चाहता हूं! उस दिन “शिक्षक दिवस” मनाना. अभी “शिक्षक दिवस” मनाने की जरुरत नहीं है...

स्कूल का शिक्षक कहे कि हमें राष्ट्रपति होना है? मिनिस्टर होना है? तो इसमे शिक्षक का कौन सा सम्मान है ? यह तो राष्ट्रपति का सम्मान है! ..

(ओशो की पुस्तक “नये समाज की खोज” के “विश्व शांति के तीन उपाय” प्रवचन से उद्धृत)

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